Abhishek Anicca
शरीर की कविताएँ
अभिषेक अनिक्का
ऐसा नहीं कि मैं कल्पना नहीं कर सकता
पलाश के पेड़ उगते हैं कहीं
मेरे सपनों के ऊपरी तल्ले पर
मैं कभी पहुंच नहीं पाता उन तक
चढ़ाई बहुत है, मेरे पैर सुन्न
कहीं मिल जाएं तुम्हें तो बुला लेना
उन्हें मेरे घर अगली होली पर
विघटन
शरीर की कविताएं
गढ़ने की इक्षा है
पर उसमें पूर्ण विराम
बहुत सारे हैं
मैं, एक खोज
मेरे नंगे शरीर के मानचित्र को वह शायद पढ़ नहीं पाई
भूगोल की उसकी पुस्तकों में मेरे अंग परिभाषित नहीं थे
क्या सोए हुए पहाड़ को पठार कहते हैं ?
ऐसी नदियों का क्या जिनको सागर नहीं मिलता
जो बह जाते हैं धीरे से किसी नाली में ?
उन पत्थरों का क्या जो कठोर बनकर भी
तकिए सा कोमल रह जाते हैं ?
मेरे पास जवाब होते
तो मैं भी अपना मापन
कर देता आईने पर
बना देता, एक नया एटलस
संदेह
तुम पढ़ती हो मेरी कविता
घर की चौथी मंज़िल पर
लिफ्ट नहीं है
मैं विकलांग
डर लगता है
कितना कुछ पहुंच पाता है
तुम तक
संशोधन
मैं अपनी बकेट लिस्ट में
आज भी सुधार कर रहा हूं
लगा रहा अल्पविराम -
नहीं कर सकता हूं
नहीं, कर सकता हूं
कितना कुछ भर दिया था तुमने
मेरी खाली कॉपियों में
अक्षमता के नाम पर
बीस अंक के प्रश्न
हम दोनों अलग हैं
पर हैं एक ही निबंध के हिस्से
तुम्हारी कल्पना शक्ति
भूमिका में फँसी रहती है
मेरे सपने बैठे रहते हैं
उपसंहार की आस में
बीच के पन्ने
अभी भी खाली हैं
ग्रो अ स्पाइन
तुम ढूंढते हो सब में रीढ़ की हड्डी
जैसे कोई प्राचीन मुहावरा
खोजता है अपना महत्व
भाषाओं के सागर में
साँपों की रीढ़ की हड्डी
बहुत लंबी होती है
अपठित
मेरा शरीर एक आंचलिक उपन्यास
जिसके कई पन्ने हैं भूरे
जैसे जंग लगी हो
पता नहीं
कोई पढ़ता ही नहीं
भाषा स्थानीय है
पर क्लिष्ट नहीं
डरते हैं लोग
छूने से

ID: A digital artwork by Abhishek Anicca titled 'A portrait of my fragmented body'